Breaking News : प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट काशी विश्वनाथ मन्दिर का किया उद्घाटन!
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मीडिया के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर का भव्य उद्घाटन किया, जिसे भारतीय संस्कृति और आस्था का ऐतिहासिक पुनर्जागरण कहा जा रहा है। यह परियोजना वाराणसी की धार्मिक, सांस्कृतिक और नगरीय गरिमा को नए शिखर तक ले जाती है।
गंगा से मंदिर तक सीधा मार्ग
अब श्रद्धालु गंगा घाट से सीधे काशी विश्वनाथ मंदिर तक आसानी से पहुंच सकेंगे। यह सुविधा 241 वर्षों के बाद साकार हुई है। मंदिर परिसर में बने 24 भवन, चार विशाल द्वार, और संगमरमर के 22 शिलालेख न केवल वास्तुशिल्प की भव्यता को दर्शाते हैं, बल्कि काशी की महिमा को भी शब्दों में संजोते हैं।
यह परियोजना ललिता घाट से मंदिर के गर्भगृह तक जाती है, जिससे श्रद्धालुओं को दर्शन में सुगमता, व्यवस्था में सुधार और साफ-सफाई में क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिल रहा है।
इतिहास के आईने में काशी
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वर्ष 1780 में मालवा की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था।
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इसके बाद लगभग 250 वर्षों तक इस मंदिर का कोई प्रमुख विस्तार नहीं हुआ।
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मुगल शासक औरंगज़ेब द्वारा मंदिर को तोड़े जाने के बाद यह स्थान वर्षों तक उपेक्षा और अव्यवस्था का प्रतीक बना रहा।
महात्मा गांधी की पीड़ा और अनदेखी
महात्मा गांधी ने वर्ष 1903 और पुनः 1916 में काशी विश्वनाथ मंदिर का दौरा किया था। उन्होंने मंदिर के परिसर में फैली गंदगी, दुर्गंध और अव्यवस्था को लेकर गहरी चिंता जताई थी। अपने लेखों में उन्होंने साफ शब्दों में लिखा था कि:
“जिस स्थान की इतनी महिमा है, वहां इतनी उपेक्षा कैसे हो सकती है?”
गांधीजी की यह पीड़ा दशकों तक अनसुनी रही। कई सरकारों ने उनके नाम पर सत्ता में तो सफलता पाई, लेकिन काशी के पुनरुद्धार की उनकी मूल भावना को कभी मूर्त रूप नहीं दिया गया। उल्टा, ऐसे प्रयासों को साम्प्रदायिक राजनीति का नाम देकर टाल दिया गया।
अब एक नए युग की शुरुआत
प्रधानमंत्री मोदी ने इस अवसर पर कहा:
“काशी केवल एक शहर नहीं, एक जीवंत चेतना है। काशी विश्वनाथ धाम का निर्माण एक नई सांस्कृतिक चेतना की शुरुआत है।”
यह परियोजना आस्था, पर्यटन, रोजगार और शहर की छवि के लिए एक बहुआयामी उपलब्धि है, और संभवतः वह दृष्टिकोण परिवर्तन भी, जिसकी कल्पना गांधीजी ने वर्षों पहले की थी।
काशी विश्वनाथ धाम अब केवल एक तीर्थ नहीं, बल्कि भारत के सांस्कृतिक आत्मविश्वास का प्रतीक बन चुका है।