Breaking News : उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ‘अब्बाजान’ कहने पर अखिलेश यादव नाराज हो गए हैं क्या उन्हें अब उर्दू अदबी अच्छी नहीं लगती हैं!
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“अब्बा कहने में बुरा क्या है?” – सियासी बयान से उठे बड़े सवाल
लखनऊ से रिपोर्ट | उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 की दस्तक
उत्तर प्रदेश की राजनीति इन दिनों गर्म है – और इस बार ‘अब्बाजान’ शब्द ने पूरे सियासी मैदान को तपिश दे दी है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान जब अयोध्या और राम मंदिर का ज़िक्र किया, तो बीच में एक तंज भरा बयान आ गया –
“अब्बाजान कहा करते थे, वहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता… आज राम मंदिर बन रहा है।”
इस बयान ने विपक्षी दलों, खासकर सपा और अखिलेश यादव को आक्रोशित कर दिया।
अखिलेश यादव की प्रतिक्रिया:
सपा अध्यक्ष ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा:
“योगी आदित्यनाथ को मेरे पिता (मुलायम सिंह यादव) के लिए इस तरह के शब्द नहीं कहने चाहिए। अगर वो ऐसा बोलेंगे, तो फिर उन्हें अपने पिता के बारे में भी सुनने को तैयार रहना चाहिए।”
यह बयान राजनीतिक मर्यादाओं और पारिवारिक सीमाओं की बहस को फिर से सतह पर ले आया है।
‘अब्बाजान’ पर सवाल क्यों?
जबकि ‘अब्बा’ या ‘अब्बाजान’ शब्द आमतौर पर उर्दू भाषा में ‘पिता’ के लिए इस्तेमाल होता है और मुस्लिम समाज में यह बहुत सम्मानजनक और स्नेहपूर्ण शब्द माना जाता है, लेकिन राजनीतिक बयानबाज़ी ने इस सामान्य शब्द को भी विवादों की आग में झोंक दिया है।
कैबिनेट मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह का तंज:
“जब कोई अपने पिता को ‘डैडी’ कह सकता है, तो ‘अब्बाजान’ शब्द पर ऐतराज़ क्यों? ये तो मीठा और पारंपरिक शब्द है।”
चुनावी समीकरण और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का संकेत?
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह बयान सिर्फ शब्दों का खेल नहीं, बल्कि 2022 के चुनाव को लेकर ध्रुवीकरण की रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है। उत्तर प्रदेश में करीब 21% मुस्लिम आबादी है, और ‘अब्बाजान’ जैसे शब्दों के जरिए सीधे तौर पर सांस्कृतिक पहचान और भावनाओं को उभारा जा रहा है।
जनता की राय:
✅ कुछ लोग कहते हैं कि योगी का बयान इतिहास की याद दिलाता है जब राम मंदिर निर्माण को लेकर अड़चनें थीं।
❌ वहीं दूसरा वर्ग इसे अनावश्यक पारिवारिक टिप्पणी मान रहा है, जो सियासत को “निजी हमलों” की दिशा में मोड़ रहा है।
‘टीपू भैया’ और ‘परिवारवाद’ की वापसी?
योगी के ‘अब्बाजान’ वाले तंज को कई लोग अखिलेश यादव के ‘पारिवारिक राजनीति’ के प्रतीक से भी जोड़ कर देख रहे हैं, वहीं सपा समर्थक इसे शालीनता की सीमा पार करने वाला बयान बता रहे हैं।